कृषि वानिकी

कृषि वानिकी

सूची

‘कृषि वानिकी’ का अर्थ है एक ही भूमि पर कृषि फसल एवं वृक्ष प्रजाति को विधिपूर्वक रोपित कर दोनों प्रकार की उपज लेकर आय बढ़ाना।

  • कृषि वानिकी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया सन् 1977 में।
  • नेशनल कमीशन आफ एग्रीकल्चर (NCA) द्वारा सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में कृषि वानिकी पर बल दिया गया।
  • भारत में पहला कृषि वानिकी सेमीनार सन् 1985 में इम्फाल में आयोजित किया गया।
  • ग्रामीण आवश्यकताओं के लिए वानिकी में (Agriforestry For Rural Meed) नामक अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन 1987 में किया गया ।
  • कृषि वानिकी पर पहला पोस्ट ग्रेजुएशन शिक्षा डॉ. Y. S. परमा कृषि एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सालेन में शुरूआत किया गया।
  • कृषि वानिकी निदान एवं रचना परिकल्पना आई.सी.आर.ए.फ. ( ICRAF ) केन्या के द्वारा विकसित की गई ।

भारत में कृषि-वानिकी के स्वरूप

1. वनों पर आधारित कृषि वानिकी

स्थानान्तकारी या झूम कृषि पद्धति (Shifting or Jhum Cultivation)

इसका स्वरूप भारत के उत्तरी पूर्वी पर्वतीय क्षेत्रों में दिखलाई देता है। जो असम, मेघालय, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, अरुणांचल प्रदेश, मिजोरम आदि प्रदेशों में फैला हुआ है।

इस पद्धति में वन भूमि के वृक्षों को काटकर जला दिया जाता है, जिससे वहाँ की भूमि खेती योग्य बन जाए। ऐसी भूमि में उसमें उर्वरा शक्ति रहने तक कृषि उत्पादन किया जाता है। वनों में पड़ती भूमि, जिसकी अवधि पहले 30-40 वर्ष होती थी, वर्तमान में घटकर 2-3 वर्ष ही रह गई है।

स्थानान्तकारी या झूम पद्धति द्वारा उपलब्ध भूमि का उपयोग उद्यानकीय वानिकी पद्धति या कृषि | उद्यानीकीय पद्धतियाँ (Horto-silvi cultural or Agri-horti cultural systems) के द्वारा उपयोग किया जा सकता है।
फलदार वृक्ष, जैसे- नींबू प्रजाति के फल, केला, अमरूद तथा अनन्नास कम ऊँचाइयों पर और अधिक ऊँचाइयों पर सेव, नाशपाती, आडू अलूचा आदि सफलतापूर्वक लगाये जा सकते हैं।
इसके साथ सब्जियाँ, जैसे- टैपिओका, अरबी, अदरक, शकरकद तथा हल्दी आदि तथा रोपण फसलें जैसे सुपाड़ी, काली मिर्च, कॉफी, चाय आदि का उत्पादन किया जा सकता है।

टॉग्या पद्धति (Taungya System)

भारत में इस पद्धति का उपयोग सागौन रोपण के लिए सन 1890 में किया गया। भारत में इसे अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे- ध्या, झूमिंग, कुमरी, पुनम, तैला, टुकले आदि।

उत्तरप्रदेश में सन 1923 में गोरखपुर क्षेत्र में साल रोपण के लिए उपयोग किया गया जो लगभग 60 वर्षी तक चलाया गया। बंगाल में सन् 1896 में तथा चितगांव में 1890 में इसे अपनाया गया। ट्रावनकोर, केरल में 1920 में तथा मध्यप्रदेश में 1925 में अपनाई गई है। वर्तमान समय में भी यह पद्धति केरल, पश्चिमी बंगाल, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक आदि प्रदेशों में अपनाई जा रही है। सागौन का रोपण इसी पद्धति से किया गया है।

खेंतों पर आधारित कृषि वानिकी

1. खेतों तथा उनके आस-पास वृक्षारोपण

खेजरी (प्रोसोपिस सिनेररिया) वृक्ष का उत्तरी पश्चिमी शुष्क क्षेत्र-का भारत के गाँवों की आर्थिक स्थिति में अत्यधिक योगदान रहा है। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा तथा पंजाब में इसे व्यापक रूप से लगाया गया है। यह वृक्ष हरीतिमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। ईंधन, लकड़ी और पशुचार के लिए उपयोगी होता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में धान बबूल का मेल सामान्य रूप में उपयोगी पाया जाता है।

2. ऐली कॉपिंग (Alley Cropping)

वृक्षों की कतारों के मध्य फसलें उगाना ऐली कॉपिंग कहलाता है। इस पद्धति में पहले वृक्ष कतारों में लगा दिये जाते हैं और उनके मध्य में फल्लीदार फसलों को प्राथमिकता से लगाया जाता है। विधि सस्थन पद्धति ( Alley Cropping system ) का अन्य नाम हेज रो इंटर कॉपिंग ( Hedge Row Intercropping) कहते है

  • उष्ण अर्द्ध-आर्द्र से शीतोष्ण पर्वतीय क्षेत्रों तक ग्रीबिया आप्टिया, सेन्ट्रिस, मोरस सिरैटा, मोरिंग ओलीफेरा. क्वरकस प्रजाति आदि लगाये जाते हैं। इनके मध्य मक्का, धान, गेहूँ आलू टमाटर तथा पत्तागोभी तथा फूलगोभी आदि फसलें उगाई जाती हैं।
  • कश्मीर की घाटियों की मेडों पर सैलिक्स प्रजाति, रॉबीनिया स्यूडोअकेशिया, सीड्स दूना तथा अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में बोरेंसस फ्लेवेलीफर, टैमैरिन्डस इंडिका, सीवा पेटैन्ड्रा वृक्षों को फसलों के साथ व्यापक रूप में लगाया जाता है।

ग्राम वन (Village forests) – भारत के अनेक भागों में कृषक वृक्षों की खेती करते हैं, जिसे वृक्षों की खेती में (Tree farming) या प्रक्षेत्र वानिकी (Form Forestry) भी कहते हैं।

  • कर्नाटक तथा तमिलनाडू में वृक्ष कृषि के लिए कैजुआरीना इक्वीसेटीफोलिया लगाया जाता है।
  • पंजाब तथा हरियाणा में यूकेलिप्टस की खेती की जाती है।
  • असम में धान के खेतों में बाँस लगाया जाता है।

वृक्षों की छाया में वाणिज्यिक फसलें

चाय तथा कॉफी के लिए छायादार वृक्षों की आवश्यकता होती है। चाय को छाया देने के लिए अल्बिजिया, अकेशिया, एरिग्रायना, लीथोस्पर्मा आदि वृक्ष लगाये जाते हैं। V. वाणिज्यिक वृक्षों के साथ कृषि फसलें उगाना- केरल, तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश में नारियल तथा सुपाडी प्रमुख व्यापारिक वृक्ष है। नारियल के वृक्षों के नीचे आठ वर्षों तक अन्तराशस्य के रूप में केंदीय फसले, मसाले, फल्लीदार फसलें, धान, फल तथा खाद्यान्न उगाते हैं।

कृषि वानिकी का वर्गीकरण
(Classification of Agro Forestry)

1. संरचनात्मक वर्गीकरण (Structural Classification)

बनावट (Composition), लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई (Dimention) तथा स्तर-विन्यास व उसकी तहाँ पर आधारित है. इसके अंतर्गत निम्न पद्धतियों आती है

(a) कृषि वनवर्धन (Agri-silviculture)

कृषि वानिकी के इस विधि में भूमि में कृषि एवं वन फसलों को मिलाकर उगाया जाता है। यह विधि आजकल सबसे अधिक लोकप्रिय है।

(b) सस्य वानिकी (Silvi Pasture)

इस विधि में वन वृक्ष व चारा को उगाते हुये घरेलू जानवर भी पाले जाते है।

(c) कृषि सस्य वानिकी प्रणाली (Agro-silvipasture system)

इस विधि में अनाज का उत्पादन, चारा, लकड़ी तथा जानवरों का पालना सम्मिलित है। (d) बहुउद्देशीय वन वृक्ष उत्पादन (Multi Purposes Forest Trees Production System) इस तकनीक में अनाज की फसल और चारा नहीं उगाई जाती है इसमें F शब्दों का प्रभुत्व रहता है – Fuel Wood,

Fodder, Fruit, Fibre 3ft Fertilizer.

2. कार्यात्मक वर्गीकरण (Functional Classification)

कृषि वानिकी की इस विधि में विभिन्न कार्यों के सभी प्रकार के पदार्थ प्राप्त होते हैं। इस विधि में अनाज, फल, सब्जियों, कपास, जूट, गन्ना, चारा, जलावन, इमारती लकड़ी, पशु मसाले, रबड़, चाय, काफी आदि पदार्थ उत्पन्न किए जाते हैं। कृषि वानिकी की इस विधि में भूमि की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है। मिट्टी और पानी का संरक्षण होता है। यह विधि अपनाने से सूखा और बाढ़ का भी नियंत्रण होता है।

कृषि वानिकी की इस विधि को तीन भागों में बांटा जा सकता है

(a) उत्पादक कृषि वानिकी प्रणाली (Productive Agro Forestry System)

इस विधि में वृक्षों को इंटरकॉप के रूप में, खेतों की मेड़ों पर, जलावन के लिए लकड़ी, कागज उद्योग के लिए गुदा बनाने के काम में आने वाली लकड़ी के वृक्ष उगाये जाते है।

(b) प्रतिरक्षक कृषि वानिकी प्रणाली (Protective Agro Forestry System)

इसके अंतर्गत वायु रोक वृक्ष, रक्षा पेटियां, झाड़ियों की कतार की इंटरकॉपिंग आदि सम्मिलित है। इस विधि का मूल उद्देश्य भूमि की रक्षा और उत्पादकता को बढ़ाना है।

(c) बहुउद्देशीय कृषि वानिकी (Multi Purpose Agro Forestry System) –

कृषि वानिकी की इस विधि में ऊपर वर्णित की गई दोनों विधियों का सामन्जस्य है।

3. बनावट आधारित वर्गीकरण (Physiognomic Classification)

इस विधि में वनस्पतियों के चरित्र या रहन-सहन को आधार मान कर वृक्षारोपण किया जाता है। वनस्पतियों या पौधों का वातावरण के अनुरूप बनकर पनपना अपने आप में विलक्षण है।

इसके अनुसार तीन तरह के पौधे होते हैं

  • जीरो मार्किक (Xeromorphic) इस विधि में पौधे जल की कम मात्रा उपयोग करने पर पनपते है जैसे- केक्टस वर्ग के पौधे
  • हाइड्रो मार्फिक (Hydromorphic)- इस विधि में अधिक पानी की आवश्यकता वाले पौधों का उपयोग कर उत्पादन लेते हैं। जैसे भूमि में धान उगाद, उसी पानी में जल जीवों को पालन जैसे मछली मेंढक इत्यादि।
  • मौजो मार्फिक (Mesomorphic) इस विधि में सामान्य रूप से बहुत उत्तम पौधे लगाकर उत्पादन करते है। इस विधि में सभी प्रकार के पौधे लगाए जा सकते है तथा इनका उत्पादन भी अच्छा होता है।

4. पारिस्थितिकीय वर्गीकरण (Ecological Classification )

पौधों का उत्पादन उस स्थान विशेष की मिट्टी, जल, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति आदि दशाओं पर निर्भर है। इसके अनुरूप पौधों का चयन करते हुए मिश्रित उत्पादन किया जाता है।

5. सामाजिक आर्थिक वर्गीकरण (Socio-economic Classification)

कृषि वानिकी की यह विधि सामाजिक आर्थिक विचार पर आधारित है इसको तीन छोटे भागों या प्राविधियों में बांटा जा सकता है।

  • वृत्ति कृषि वानिकी प्रणाली (Subsistence Agro Forestry System)
  • व्यवासायिक वानिकी प्रणाली (Commercial Forestry System)
  • माध्यमिक कृषि वानिकी प्रणाली (Intermediate Agro Forestry System)

6. फूलों पर आधारित वर्गीकरण (Floristic Classiffication)

7. ऐतिहासिक वर्गीकरण (Historical Classification)

और भी पढे: कृषि-वानिकी पद्धतियों का वर्गीकरण

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