बंगाल का विभाजन

उस समय बंगाल की आबादी 7 करोड़ 85 लाख थी जो गुलाम भारत की आबादी का 1/4 थी। उस समय बंगाल में आजकल के पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा शामिल थे।

भारत सरकार ने बंगाल का विभाजन करके एक नवीन प्रान्त बनाया जिसमें बंगाल के चटगांव, ढाका और राजशाही जिला के पूरे क्षेत्र, माल्दा जिला, त्रिपुरा का पहाड़ी राज्य और असम सम्मिलित किए गए। इस प्रांत को पूर्वी बंगाल और असम नाम से पुकारा गया।

इस मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत की राजधानी ढाका बनायी गई तथा शेष बंगाल प्रांत में राजधानी कलकत्ता सहित आधुनिक प. बंगाल के 11 जिले दार्जिलिंग, बिहार व उड़ीसा शामिल थे। भारत सरकार का कहना था कि बंगाल सूबा बहुत बड़ा है। इस कारण प्रशासकीय सुविधा के लिए विभाजन आवश्यक है। लार्ड कर्जन के अनुसार अंग्रेजी हुकूमत का यह प्रयास कलकत्ता को सिंहासनच्युत करना था। बंगाली आबादी का बंटवारा करना था। एक ऐसे केन्द्र को समाप्त करना था जहाँ से बंगाल व पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था व साजिशें रची जाती थीं।

बंगाल का विभाजन

भारत सरकार के तत्कालीन गृह-सचिव रिसले का कथन था “अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है तथा विभाजन होने से यह कमजोर हो जायेगा। हमारा उद्देश्य बंगाल का बंटवारा करना है जिससे हमारे दुश्मन बँट जायें व कमजोर पड़ जायें।” अंग्रेजी हुकूमत का मकसद मूल बंगाल में बंगालियों की आबादी कम कर उन्हें अल्पसंख्यक बनाना था। इस विभाजन योजना में

एक और विभाजन अंतर्निहित था- धार्मिक आधार पर विभाजन दिसम्बर 1903 में बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की जानकारी मिली। पहले दो माह में ही पूर्वी बंगाल में विभाजन के खिलाफ 500 बैठकें हुई।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, कृष्ण कुमार मिश्र, पृथ्वीशचन्द्र राय व अन्य नेताओं ने विभाजन प्रस्ताव के खिलाफ बंगाली, हितवादी, संजीवनी जैसे अखबारों व पत्रिकाओं के माध्यम से आन्दोलन छेड़ा।

19 जुलाई, 1905 को बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी गई। घोषणा के तुरन्त बाद बंगाल के लगभग सभी कस्बों में विरोध सभायें आयोजित की गई।

7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हाल में एक ऐतिहासिक बैठक में स्वदेशी आन्दोलन की विधिवत घोषणा की गई। इस बैठक में बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ। इससे पहले 13 जुलाई, 1905 को सर्वप्रथम संजीवनी नामक साप्ताहिक पत्रिका में बहिष्कार को अपनाने का सुझाव दिया गया।

1 सितम्बर 1905 को सरकार ने यह घोषणा की कि विभाजन 16 अक्टूबर में लागू होगा। 28 सितम्बर, 1905 को कलकत्ता के निकट कालीघाट के मंदिर में 50,000 लोगों ने शपथ ली कि वे विदेशी वस्तुओं का प्रयोग नहीं करेंगे।

16 अक्टूबर, 1905 का दिन पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर के सुझाव पर सम्पूर्ण बंगाल में यह दिन रक्षाबन्धन दिवस के रूप में मनाया गया। लोगों ने गंगा स्नान किया और सड़कों पर वंदे मातरम् गाते हुए प्रदर्शन किया।

बाद में इसी दिन आनन्द मोहन बसु और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने दो विशाल जनसभाओं को संबोधित किया और कुछ ही घंटों के भीतर आन्दोलन के लिए 50,000 रुपये इकट्ठा किया।

स्वदेशी आन्दोलन व बहिष्कार आन्दोलन का संदेश पूरे देश में फैल गया। महाराष्ट्र मे तिलक व उनकी पुत्री केतकर ने इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

पंजाब व उत्तर प्रदेश में लाला लाजपतराय, अजीत सिंह जयपाल, गंगाराम और स्वामी श्रद्धानन्द ने इस आन्दोलन का प्रचार किया। दिल्ली में इसका नेतृत्व सैय्यद हैदर रजा ने किया।

मद्रास में चितम्बरम् पिल्लै, सुब्रमण्यम् अय्यर, आनन्द चालू और टी.एन. नायर इसके नेता थे। स्वदेशी आन्दोलन ने जनजागरण के लिए स्वयंसेवी संगठनों की मदद ली। इसमें सबसे महत्वपूर्ण संगठन स्वदेश बाँधव समिति था। बारीसाल के एक अध्यापक अश्वनी कुमार दत्त के नेतृत्व में गठित इस समिति की 159 शाखायें फैली थीं।

स्वदेशी आन्दोलन में मुख्य भूमिका बंगाल के छात्रों की रही। बंगाल सरकार के कार्यवाहक मुख्य सचिव कार्लाइल ने कलेक्टरों के पास पत्र भेजा कि वे कॉलेजों से कहें कि वे अपने छात्रों को आन्दोलन में भाग न लेने दें नहीं तो उनकी सरकारी सहायता बन्द कर दी जायेगी। और विश्वविद्यालयों से कहा गया कि वे ऐसी संस्थाओं की मान्यता वापस ले लें। इस पत्र को कार्लाइल सर्क्यूलर कहा जाता है। इस आन्दोलन की एक विशेषता यह भी थी कि महिलाओं ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया था। परन्तु यह आन्दोलन बंगाल के किसानों को प्रभावित नहीं कर सका। वस्तुतः यह आन्दोलन शहरों के उच्च व मध्यम वर्ग तक ही सीमित रहा।

सबसे अधिक सफलता मिली विदेशी माल के बहिष्कार आन्दोलन को, बंगाल व देश के दूर-दराज के हिस्सों में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई, औरतों ने विदेशी चूड़ियाँ पहनना व विदेशी बर्तनों का प्रयोग बन्द कर दिया।

कपड़ा धुलने वालों ने विदेशी वस्त्र धुलने से मना कर दिया और महन्तों ने विदेशी चीनी से बने प्रसाद को लेने से माना कर दिया।

स्वदेशी आन्दोलन ने अपने प्रचार के लिए पारम्परिक त्योहारों, धार्मिक मेलों व लोक परम्पराओं का भी सहारा लिया। स्वदेशी आन्दोलन की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसने आत्मनिर्भरता अर्थात् आत्मशक्ति का नारा दिया।

स्वदेशी माल की सप्लाई के लिए अनेक स्थानों पर स्वदेशी स्टोर खोले गए। सर्वप्रथम आचार्य प्रफुल्लचन्द राय ने बंगाल केमिकल स्वदेशी स्टोर खोला। बंगाल विभाजन विरोधी आन्दोलन ने राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा दिया।

8 नवंबर 1905 को रंगपुर नेशनल स्कूल की स्थापना हुई।

छात्रों को कॉलेजों से निकालने तथा जुर्माना लगाने के कारण छात्रों ने सरकारी दमन का मुकाबला करने के लिए एण्टी सर्कुलर सोसायटी की स्थापना की जिसके सचिव सचिन्द्र प्रसाद बसु चुने गए। इस सोसायटी ने छात्रों को संगठित करने और स्वदेशी आन्दोलन में छात्रों को उतारने में बहुत बड़ा योगदान दिया।

बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा को फैलाने में सबसे बड़ा कार्य डॉन सोसायटी ने किया। यह विद्यार्थियों का संगठन था। इसके • सचिव सतीश चन्द्र मुखर्जी थे। • टैगोर के शान्ति निकेतन के तर्ज पर 14 अगस्त 1906 को बंगाल नेशनल कॉलेज और स्कूल की स्थापना की गई। नेशनल कॉलेज के प्रिंसिपल अरविन्द घोष बने।

16 नवंबर 1905 को कलकत्ता में एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय नियंत्रण में राष्ट्रीय साहित्यिक वैज्ञानिक और तकनीकि शिक्षा देने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा परिषद स्थापित करने का फैसला किया गया और 15 अगस्त 1906 को राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना पूर्णतः हो गई।

बंगाल के विभाजन में क्या हुआ हैं ? इस सवाल का जवाब लगभग आपको समझ आ गया होगा

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स्वदेशी आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव सांस्कृतिक क्षेत्र में पड़ा। बंग्ला काव्य साहित्य के लिए यह स्वर्ण काल था।

रवीन्द्र नाथ टैगोर, द्विजेन्द्र लाल राय, मुकुन्द दास के लिखे गए गीत आन्दोलनकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत बने। टैगोर ने उस समय बांग्लादेश के स्वाधीनता संघर्ष को तेज करने के लिए प्रेरणा स्रोत का जो गीत लिखा था ‘आमार सोनार बांग्ला’ वह 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना।

कला के क्षेत्र में अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतीय कला पर पाश्चात्य आधिपत्य को तोड़ा तथा स्वदेशी पारम्परिक कलाओं व अजन्ता की चित्रकला से प्रेरणा लेनी शुरू की।

1906 में स्थापित इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट्स की पहली छात्रवृत्ति भारतीय कला के मर्मज्ञ नन्दलाल बोस को मिली।

विज्ञान के क्षेत्र में जगदीश चन्द्र बसु, प्रफुल्लचन्द्र राय आदि की सफलताएँ आन्दोलन को और भी मजबूत बनाने में सहायक हुई।

1907 के अन्त तक स्वदेशी आन्दोलन की समाप्ति होने लगी।

बंगाल के बड़े नेताओं में अश्वनी कुमार दत्त व कृष्ण कुमार मित्र निर्वासित कर दिये गए।

तिलक को 6 वर्ष की सजा हुई। मद्रास के चिदम्बरम पिल्लै और आंध्र प्रदेश के हरि सर्वोत्तम राव को गिरफ्तार कर लिया गया।

पंजाब के अजीत सिंह और लाला लाजपतराय को निर्वासित कर दिया गया तथा बिपिन चन्द्र पाल और अरविन्द घोष ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और इस प्रकार एकाएक समूचा आन्दोलन नेतृत्वविहीन हो गया।

इस आन्दोलन का दूरगामी प्रभाव यह रहा कि 1911 के अन्त में बंग विभाजन रद्द हो गया।