छत्तीसगढ़ मूलत: कृषि प्रधान राज्य है यहां मूल समस्या किसानों की ही समस्या रही है। ब्रिटिश शासनकाल में यहां के खालसा जमींदारियों एवं रियासती क्षेत्रों में किसानों का शोषण प्रारम्भ हुआ। छत्तीसगढ़ के किसानों ने अपने जोर-जुल्म से छुटकारा पाने के लिए समय- समय पर आन्दोलन प्रारम्भ किया। ब्रिटिश शासनकाल में छत्तीसगढ़ भू भाग में हुए किसान आन्दोलन एवं उनकी गतिविधियों को क्रमबद्ध रूप से इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
राजनांदगांव बेगार विरोधी आन्दोलन (1879 )
सूची
सन् 1857 की क्रांति के बाद कम्पनी प्रशासन ने सामन्ती व्यवस्था को संरक्षण एवं संवर्धन दिया। राजनांदगांव को एक सामन्ती राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। महन्त घासीदास 1879 में अंग्रेजों की ओर से सत्ता प्रतिनिधि नियुक्त किए गए। राजनांदगांव नगर बना और गांवों में बेगारी बढ़ी। किसान बेगारी से त्रस्त होने लगे। सन् 1879-80 में इस बेगार के खिलाफ सेवता ठाकुर ने अपनी आवाज बुलन्द की। किंतु कम्पनी प्रशासन की मदद से उसका विरोध कुचल दिया गया।
कण्डेल गांव का नहर सत्याग्रह (1920)
राष्ट्रीय आन्दोलन काल में सन् 1920 में कण्डेल गांव के किसानों ने एक जबरदस्त सत्याग्रह आन्दोलन किया था। कंडेल ग्राम का नहर पानी का सत्याग्रह किसानों का ही सत्याग्रह था जिसका नेतृत्व किसानों के हाथ में रहा। केयूरभूषण जी ने अपने एक लेख में लिखा है- ‘इस सत्याग्रह में गांधी के चम्पारण सत्याग्रह का प्रभाव पड़ा, क्योंकि यहां के किसानों ने इस सत्याग्रह के संचालन में अहिंसा को आधार बनाया था। कण्डेल सत्याग्रह का कारण यह था कि शासन ने किसानों पर ‘नहर कर’ लगा दिया था। इसके विरोध में किसानों ने कर न देने का संकल्प लिया था। किसानों द्वारा नहर पानी पर शुल्क न देने की स्थिति में इस पानी को बड़े-बड़े शहरों में ले जाया गया। सत्याग्रही किसानों के मवेशियों को बल पूर्वक पकड़कर उन्हें नीलाम करने हेतु-बड़े-बड़े शहरों में ले जाया गया। लेकिन स्वयंसेवकों के नैतिक प्रभाव से मवेशियों की नीलामी नहीं हो सकी। अंततः शासन को झुकना पड़ा। इस सत्याग्रह में किसानों की विजय हुई। कण्डेल नहर सत्याग्रह का संचालन पं. सुन्दरलाल शर्मा और नारायणलाल मेघावाले ने किया।
डॉडी लोहारा जमींदारी में किसान आन्दोलन (1937-39)
सन् 1937 में डॉडीलोहारा जमींदारी के किसानों ने आन्दोलन प्रारम्भ किया। यहां के किसान आन्दोलन का नेतृत्व दुर्ग के युवा अधिवक्ता नरसिंह प्रसाद अग्रवाल एवं सरजू प्रसाद अग्रवाल ने किया था। इस जमींदारी के किसान जंगल से चरी निस्तारी की सुविधाएं जमींदारी की स्थापना के पूर्व से ही प्राप्त करते रहे थे। किन्तु एकाएक दीवान ने इन सुविधाओं से किसानों को बेदखल कर दिया। फलस्वरूप किसानों ने गांधीवादी सत्याग्रह प्रारम्भ करने की चेष्टा की। 28 अगस्त 1937 को डॉडीलोहारा जमींदारी के समस्त किसानों ने एकत्रित होकर मालीथोरा बाजार में आम सभा की। इस सभा में किसानों ने दीवान की नीतियों की आलोचना की तथा अपने हक के लिए संघर्ष करने का निर्णय लिया। किसानों का एक दल सरयू प्रसाद अग्रवाल से मिलने गया और उनसे नेतृत्व करने का आग्रह किया। किसानों की न्यायसंगत मांग को देखकर सरयू प्रसाद अग्रवाल ने नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। डोंडीलोहारा का यह किसान आन्दोलन डोंडी तक ही सीमित नहीं रहा अपितु पानावारस और चौकी आदि जमींदारियों में भी फैल गया।
इस सत्याग्रह के दौरान 90 व्यक्तियों की गिरफ्तारियां की गई। आन्दोलनकारी नेता सरयू प्रसाद अग्रवाल, नरसिंह अग्रवाल एवं वली मोहम्मद को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया। आन्दोलनकारी नेता सरयूप्रसाद जी अग्रवाल का मामला अदालत में चार माह तक चलता रहा। प्राय: रोज मामले पर बहस हुआ करती थी। अपने मामले की पैरवी खुद सरयूप्रसाद जी ही करते थे। बहस सुनने के लिए जनता काफी संख्या में उपस्थित रहती थी। दिनांक 13.10.1939 को स्थानीय मजिस्ट्रेट की अदालत में सरयूप्रसाद जी अग्रवाल को डोंडी लोहारा जंगल सत्याग्रह के सम्बन्ध में अशांतिपूर्ण भाषण देने पर 9 माह की सजा सुनाई। अन्य सभी सत्याग्रहियों को भी सजाएं दी गई। किन्तु कांग्रेस मंत्रिमंडल के समाप्त होने के पूर्व ही किसान सत्याग्रहियों और उनके नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया।
मध्यप्रान्त की विधानसभा में विधायक थे। उन्होंने चरी और निस्तारी के लिए विधेयक लाया। परिणाम स्वरूप कमिश्नर एच. व्ही., कामथ की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। इस समिति ने समस्त जमींदारियों का दौरा करने के उपरान्त निस्तारी के अधिकार पर 500 पृष्टों की रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट के आधार पर कुछ सुधार किए गए, जिससे किसानों को राहत मिली। हालांकि पूर्ण सुधार जमींदारी उन्मूलन के बाद ही हो सका।
छत्तीसगढ़ में किसान आन्दोलन कब कब हुआ हैं ? इस सवाल का जवाब लगभग आपको समझ आ गया होगा
किसान आन्दोलन
ब्रिटिश शासनकाल में भारत के अनेक प्रान्तों, जमींदारियों व रियासतों में किसान आन्दोलन हुए थे। इस आन्दोलन का संगठित रूप बिहार में हुआ। वहां पर स्वामी सहजानन्द ने किसानों को संगठितकर न्यायोचित मांगों के लिए आन्दोलन प्रारम्भ किए। बिहार के किसान आन्दोलन का प्रभाव भारत के अन्य प्रान्तों में भी पड़ा। मध्यप्रान्त में ‘प्रान्तीय सभा’ तथा जमींदारियों एवं रियासतों में किसान सभा’ जैसी संस्थाएं स्थापित हुई। इन संस्थाओं ने किसानों की स्थानीय एवं न्यायोचित मांगों के लिए आन्दोलन किए। 17 अक्टूबर 1937 को रायपुर नगर के आनन्द समाज पुस्तकालय में एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन का नेतृत्व श्री कन्हैयालाल मिश्रा ने किया था। रायपुर शहर के अधिकांश कांग्रेस के नेता इस सम्मेलन के विरोध में थे। केवल श्री यति यतनलाल ने सक्रिय सहयोग दिया था। छत्तीसगढ़ में किसान आन्दोलन, किसान सभा के माध्यम से विकसित हुआ। 6 फरवरी 1938 से 3 अप्रैल 1938 तक बिलासपुर जिले के लोरमी, लोहर्सी, सीपत, देवरी और बेलगहना में किसान सभाएं हुए। इन सभाओं में किसानों ने अपनी समस्याओं को मांग के रूप में प्रस्ताव पारित कर प्रस्तुत किया।
छुईखदान रियासत में ‘लगान बन्दी‘ आन्दोलन (1939 )
छुईखदान छत्तीसगढ़ की एक छोटी रियासत थी। यहां पर किसानों का भरपूर शोषण व्याप्त था। अंग्रेज भक्त दीवान की शोषण नीति से किसानों में तीव्र असन्तोष था, यही असन्तोष 1949 के लगान बन्दी आन्दोलन का कारण बना।
13.12.1939 को खैरा नर्मादा में श्री रामनारायण मिश्र (हर्षुल) के नेतृत्व में किसानों की आमसभा हुई। इसमें दीवान साहब की शोषण नीति के खिलाफ लगानबन्दी आन्दोलन किए जाने सम्बन्धी निर्णय लिया गया। इस लगानबन्दी आन्दोलन से दीवान बौखला गया।
आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारियां हुई। यहां के आन्दोलनकारी, कांग्रेस के उच्च नेताओं का सहयोग चाहते थे। इसी सम्बन्ध में श्री रामनारायण मिश्र गांधी जी से मिलने दिल्ली गए। छुईखदान का लगानबन्दी आन्दोलन एक अहिंसात्मक आन्दोलन था इसकी तुलना ‘बारदोली सत्याग्रह’ से की जा सकती है।
महात्मागांधी एवं अन्य कांग्रेस नेता रियासत के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप के खिलाफ थे। उनका यह दृष्टिकोण था कि कांग्रेस के हस्तक्षेप का कोई भी कार्य रियासती जनता के हित को नुकसान पहुंचाएगा। गांधी जी ने इसी धारणा के कारण लगानबन्दी आन्दोलन में हस्तक्षेप से इंकार कर दिया तथा उन्होंने शीघ्रताशीघ्र आन्दोलन स्थगित कर देने की सलाह दी। गांधी जी के परामर्श से यह आन्दोलन स्थगित कर दिया गया।
किसान सभा का गठन एवं प्रस्ताव
छुईखदान रियासत के किसानों में राजनीतिक जागरुकता की अधिकता रही है। इस रियासत के किसानों ने एक किसान सभा कायम की थी। समारूराम महोबिया, दामोदरलाल दादरिया, अमृतलाल दादरिया, पूजनमचंद जी सांखला आदि इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता थे। इस संस्था ने किसानों की समस्याओं को लेकर कईबार सभाएं की तथा समस्याओं के निराकरण के लिए समय-समय मांग प्रस्तुत की। 3 मई 1946 को किसान सभा की एक महत्वपूर्ण बैठक हुई इसमें निम्नांकित प्रस्ताव पारित किए गए
- व्यापारियों द्वारा वायदे के गल्ले के सौदे से कृषक को मुक्त कराने वाले दरबार आर्डरों के उद्देश्यों की समुचित पूर्ति के लिए कोशिश की जावे इस हेतु उक्त आर्डरों को खुलासा किया जावे। भोली जनता पर जो कुछ भी धांधलीगर्दी या ठगी हुई हो उसकी व्यौरेवार रिपोर्ट दरबार में पेश किया जावे। नाजायज वसूली की भरपाई वापसी कराने का प्रयत्न किया जाये।
- लोभवश या अन्य किसी कारण से व्यापारी लोगों ने या कर्मचारी लोगों ने दरबार आर्डर की मंशा के खिलाफ जो भी जबरजोरी या छल किया हो उसकी जांच कर कार्यवाही की जावे।
- बाढ़ी और ब्याज की दर निर्धारित करने व उन पर नियंत्रण करने के लिए यह सभा दरबार से प्रार्थना करती है।
कांकेर में किसान आन्दोलन (1944-45)
सन् 1944 में दीवान जे.एन. महन्त को हटाकर टी. महापात्र को कांकेर रियासत का दीवान बनाया गया। उनसे 1944 में नवीन भू-बन्दोबस्त लागू किया। इस नवीन भू व्यवस्था के अन्तर्गत राजस्व वसूली ठेका प्रणाली से की जाने लगी।
राजस्व वसूली का यह कार्य गांवों के गौटिया करने लगे। लगान वसूली के नाम पर ठेकेदार मनमाने तौर पर अत्याचार करने लगे। ठेकेदारों के लठैतों के आतंक से किसान खेत खलिहान से पलायन कर जंगलों में छिप गए।नवीन-भू-राजस्व व्यवस्था से लोगों में तीव्र असन्तोष फैला।
भानुप्रतापपुर के गांव सुरंगदाह के गौटिया इन्दरू केंवट ने लोगों को लगान न पटाने के लिए प्रेरित किया। गांव-गांव में लगान मत पटाओ का आन्दोलन होने लगा। किसानों के विरोधी तेवर को देखते हुए ब्रिटिश प्रशासन ने कठोर नीति अपनाई।
इंदरू केंवट, गुलाबहटना व कंगलू कुम्हार के साथ अनेक किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजी प्रशासन ने इन्दरू केवट, गुलाब हटना, कंगलू कुम्हार और लगभग 429 किसानों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। परिणात 200 बैलगाड़ियों में गांवों के किसानों ने अपने गिरफ्तार साथियों को छुड़ाने के लिए कांकेर में घेरा डाल दिया।
विद्रोह की व्यापकता को देखते हुए रियासत प्रमुख भानुप्रताप देव ने किसान विद्रोहियों मे समझौता कर लिया। इसके बाद आन्दोलनकारियों को रिहा कर दिया गया।
सक्ती रियासत में किसान आन्दोलन
सक्ती एक कृषिप्रधान रियासत थी। तत्कालीन शासक लीलाधर सिंह की कृषि नीति से गौटियों व किसानों में असन्तोष उत्पन्न हो गया था इस असन्तोष का मूल कारण यह था कि कुछ गौटियों को बेदखल कर दिया गया था। बेदखल किए गए गोटियों और उनके किसानों में तीव्र असन्तोष फैल गया। पुराने गौटियों ने बेदखल किए गए खेतों को फसल काटना शुरु कर दिया फसल काटने की रिपोर्ट थाने में की गई। रियासती प्रशासन के इशारे पर पुलिस ने फसल काटने वालों पर चोरी का आरोप लगाकर जेल में बन्द कर दिया। जेल में बन्दी गौटियों और किसानों पर अमानवीय अत्याचार हुए।
29 नवम्बर 1947 स्टेट कांग्रेस के नेतृत्व में राजमहल के सामने एक आमसभ हुई। इस सभा में वेदखल किए गए गांवों के किसानों ने भाग लिए। 29 नवम्बर 1947 की इस आमसभा में उपस्थित लोगों व प्रतिनिधियों ने रियासत की कृषि नीति को जमकर आलोचना की तथा जेल में बन्द गौटियों व किसानों की रिहाई की मांग की गई।
आन्दोलन को समाप्त करने के लिए गौटियों और किसानों को रिहा किया गया परन्तु उनको मांगे स्वीकार नहीं की गई। परिणामस्वरूप कृषक आन्दोलन कम नहीं हुआ व राज्य विलय के पश्चात भी चलता रहा।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी आन्दोलन
प्राचीन काल से ही छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल क्षेत्र रहा है। यहां के आदिवासियों ने ब्रिटिश शासनकाल में अपनी अस्मिता व अधिकारों के लिए समय-समय पर विद्रोह किया। ब्रिटिश शासनकाल में हुए आदिवासी विद्रोहों को निम्न शीर्षकों में दर्शाया गया है
1876 का मुरिया विद्रोह –
1876 का मुरिया विद्रोह छत्तीसगढ़ इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह विद्रोह न ही अंग्रेजों के विरूद्ध था और न ही बस्तर के शासक भैरमदेव के विरूद्ध था। यह आंदोलन दीवान गोपीनाथ कपड़दार के उत्पीड़क कृत्यों, उसके अत्याचारों एवं मुंशी आदित्य प्रसाद के मनमाने कृत्यों की भीषण परिणति के रूप में सामने आया। इस विद्रोह की तह में अनेक कारण विद्यमान थे, जिनमें ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किया गया भू-राजस्व प्रयोग, दीवान गोपीनाथ कपड़दार और उनके नौकरशाही का आदिवासियों पर जुल्म ढानी, उनकी परम्पराओं पर हस्तक्षेप आदि थे।
मैक नार्ज ने विद्रोह की चर्चा करते हुए यह कहा था-‘इस विद्रोह में आदिवासियों का असंतोष ही एकमात्र कारण नहीं था। विद्रोह का एक कारण यह भी था कि दरबार में महत्वाकांक्षी प्रतिस्पर्धाओं के परस्पर विरोधी स्वार्थ भी थे। अभिजात्य वर्ग ने सुलगते हुए असन्तोष को भड़काया।’ मैक जार्ज का उपरोक्त कथन सत्य प्रमाणित होता है। भूतपूर्व दीवान मोती सिंह, भैरमदेव के चचेरे भाई लाल कलेन्द्र सिंह और राजगुरु बस्तर दरबार से असंतुष्ट थे इन्हीं असन्तुष्ट लोगों ने आदिवासियों को सहयोग दिया था।
1 मार्च 1876 को राजा भैरमदेव प्रिन्स ऑफ वेल्स से मिलने बम्बई गए थे। राजा अपने सैनिकों, दीवान गोपीनाथ कपड़दार के साथ मारेगांव नामक गांव पहुंचे। इस गांव के मुरिया आदिवासियों ने भैरमदेव से बाहर न जाने का निवेदन किया। आदिवासियों को यह आशंका थी कि राजा के बाहर होते ही दीवान और उसकी नौकरशाही का अत्याचार बढ़ जाएगा। उन्हें यह भी सन्देह था कि कहीं ऐसा न हो कि राजा को बस्तर आने से रोक दिया जाए। राजा का सामान लेकर चल रहे मुरिया आदिवासियों ने राजा का सामान ढोने से इन्कार कर दिया।
आगरवाना परगना के मुरिया लोगों ने राजा को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयत्न किया। उन्होंने राजा भैरमदेव का घेराव भी किया। आदिवासियों का व्यवहार दीवान गोपीनाथ को सहन नहीं हो पाया। उसने सैनिकों को आदिवासियों के समूह पर गोली चलाने का आदेश दिया। 18 आदिवासी मुरियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
अदालत में मामला चलाने के लिए उन्हें जगदलपुर रवाना किया गया। स्थिति की गंभीरता को देखकर राजा भैरमदेव ने आगे की यात्रा स्थगित कर जगदलपुर वापस आने को तैयार हो गये। इस बीच मारेंगा गांव में गिरफ्तार किए गए 18 मुरियों को कुरंगपाट में कठोर यातनाएं दी गई। इस वजह से मुरिया जनजाति में असंतोष तीव्र गति में फैला।
लगभग 50 लोगों ने कुरंगपाट में घेराबन्दी कर गिरफ्तार आदिवासियों को छुड़ा लिया। इस दृश्य को देखकर दीवान कपड़दार जान बचाकर भाग गया। मुरिया आदिवासी भावी रणनीति बनाने के उद्देश्य से आरापुर गांव में एकत्रित हुए। यहां पर झाड़ा सिरहा को विद्रोह का नेता चुना गया प्रत्येक गांव में आदिवासियों को आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रतीक के रूप में चीजें भेजी गई। इस विधि से विद्रोहियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। लगभग 700 मुरिया विद्रोही आरापुर में एकत्रित हुए। राजा भैरमदेव ने अपने सुरक्षा सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया। परिणामस्वरूप सुरक्षा सैनिकों और मुरिया लोगों के बीच खूनी संघर्ष में 6 मुरिया आदिवासी विद्रोही मारे गए। राजा ने राजधानी जगदलपुर से सेना को बुला लिया था। सेना को आते देख मुरिया विद्रोही आरापुर से भाग गए।
मुरिया आदिवासियों ने मैक जार्ज की बातों में विश्वास कर वापसी आरम्भ की। मैक जार्ज ने राजा भैरमदेव को दीवान गोपीनाथ कपड़दार तथा मुंशी आदित्य प्रसाद को हटाने की सलाह दी । परन्तु राजा ने इसे मानने से इंकार कर दिया। मैक जार्ज ने राजा को गंभीरता से समझाया। अंत में राजा ने वही करने का निश्चय किया जैसा मैकजार्ज ने सुझाया था। दीवान गोपीनाथ कपड्दार, मुंशी आदित्य प्रसाद और कुछ अन्य कायस्थ कर्मचारियों को बस्तर राज्य से बाहर निकाल दिया गया। उसने मुरिया आदिवासियों की शिकायतों को दूर करने राजधानी जगदलपुर में मुरिया दरबार का आयोजन किया। मैक जार्ज की नीति से बस्तर की अशान्ति समाप्त हो गई। सन् 1876 ई. का मुरिया विद्रोह आदिवासियों की जागृति का परिचायक है। अत्याचारी दीवान व मुंशी से मुक्ति पाने के लिए किया गया यह अहिंसात्मक संघर्ष था। एक सशक्त आन्दोलन कर हिंसा का सामना अहिंसा से कर निश्चित रूप से मुरिया आदिवासियों ने अपना गौरव बढ़ाया।
1910 का विद्रोह (भूमकाल )
सन् 1910 ई. का बस्तर विद्रोह बस्तर के आदिम जातियों द्वारा किया गया एक व्यापक हिंसा प्रधान संग्राम था। यह विद्रोह बस्तर की आजादी की लड़ाई में प्रमुख स्थान रखता है, जिसे आज भी ‘भूमकाल के’ नाम से याद किया जाता है। प्रत्येक विद्रोह भी इससे अछूता नहीं था। 1910 ई. के बस्तर विद्रोह के अनेक कारण थे।
इन कारणों में अंग्रेजों द्वारा राजा रूद्रप्रताप के हाथों में सत्ता न सौंपना, राजपरिवार से दीवान न बनाना, स्थानीय प्रशासन की बुराईयां, लाल कालेन्द्र सिंह और राजमाता सुवर्णकुंवर की उपेक्षा, बस्तर के वनों को ‘ सुरक्षित वन घोषित करना, वन उपज का सही मूल्य न देना, लगान में वृद्धि करना, घरेलु शराब के निर्माण पर कम मजदूरी, नवीन शिक्षा नीति, बस्तर में बाहरी लोगों का आगमन बेगारी व शोषण तथा अधिकारियों, कर्मचारियों द्वारा मुर्गा, शुद्ध घी वनोपज के रूपों में अधिक शोषण आदि।
अक्टूबर 1909 में दशहरे के दिन राजनी (राजमाता) सुवर्ण कुंवर ने लाल कालेन्द्र सिंह की उपस्थिति में ताड़ोकी में आदिवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित किया। इस सभा में लाल कालेन्द्र सिंह ने नेतानार ग्राम के गुण्डाधुर को क्रान्ति को नेता बनाया।
एक-एक परगने से एक-एक बहादुर व्यक्तियों को विद्रोह संचालन करने के लिए नेता मनोनित किया। जनवरी 1910 में ताड़ोकी में पुनः एक गुप्त सम्मेलन हुआ, इसमें लाल कालेन्द्र सिंह के समक्ष क्रान्तिकारियों ने कसम खाई की वे बस्तर की अस्मिता के लिए अपना जीवन व धन कुर्बान कर देंगे। सन् 1910 के व्यापक विद्रोह को संगठित रूप से संचालित करने के लिए क्षेत्रवार नेतृत्व दिया गया था।
विद्रोह की प्रमुख घटनाएं
1 फरवरी 1910 को समुचे बस्तर में क्रांतिकारियों ने क्रान्ति की शुरूआत की। इस विद्रोह में भाग लेने के लिए हर गांव के प्रत्येक परिवार से एक-एक सदस्य को भाग लेने के लिए कहा गया था और उसके पास लाल मिर्च, मिट्टी के ढेले, धनुष, भाले तथा आम की डालियां प्रतीक स्वरूप भेजी गई। 2 फरवरी 1910 को क्रान्तिकारियों ने पूसपाल बाजार में लूट मचाई।
विद्रोहियों ने नूर सब खां नामक रूहेला व्यापारी को जान से मार दिया। यह घटना 4 फरवरी 1910 को कुकानार में घटित हुई, इस हत्याकांड में विद्रोही नेता सोमनाथ धाकड़ की भूमिका थी 15 फरवरी 1910 को करंजी बाजार को विद्रोहियों ने लूट लिया तत्पश्चात मारेंगा और तोकापाल में विद्रोहियों ने पाठशाला भवनों पर आक्रमण कर उसे जलाकर खाक कर दिया। 7 फरवरी 1910 को गीदम में विद्रोही नेताओं की गुप्त सभा आयोजित हुई।
इस सभा में राजमाता सुवर्णकुंवर ने यह घोषणा की अब बस्तर से ब्रिटिश राज्य समाप्त हो गया है तथा आज हम पुनः मुरिया राज्य का संकल्प लेते हैं। इसके पश्चात विद्रोहियों ने बारसुर, कोण्टा, कुटनर, दंतेवाड़ा, कुंआ कोण्डा, मद्देड़, भोपालपट्टनम, जगर गुण्डा, उसूर, छोटे डोंगर, कुतूल आदि गांवों, कस्बों पर आक्रमण कर लूट-मार मचाए।
आन्दोलन को दबाने के लिए शासक रूद्रप्रताप देव ने सी.पी. के आयुक्त से सैन्य सहायता मांगी। 7 फरवरी 1910 को रूद्रप्रतापदेव ने सी.पी. के आयु को इस सम्बन्ध में एक तार संदेश भेजा था।
ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलन को कुचलने के लिए 220 पुलिस कर्मों भेजे मदास प्रेसिडेन्सी से 150 एवं पंजाबी बटालियन के 170 सैनिक विद्रोह को दबाने के लिए बस्तर आ धमके। 16 फरवरी 1910 को अंग्रेजों और विद्रोहियों के मध्य इंद्रावती नदी के खड़गघाट पर भीषण संघर्ष हुआ। इस निर्णायक संघर्ष में विद्रोही परास्त हुए।
खड़गमाष्ट का यह संघर्ष 6 घंटों तक हुआ। इसमें अनेक विद्रोहियों को जीवनलीला समाप्त हो गई। यहाँ कम से कम ढाई हजार लोग मारे गए। जनश्रुति के अनुसार आयत, एड़का, काम, कोला, मासा, भीना, दूंगा, लकी आदि शहीद हुए।
खड़गघाट पराजय से विद्रोहियों का मनोबल टूटा नहीं था विद्रोहियों ने जगदलपुर की घेराबन्दी की।
पंजाबी, मद्रासी बटालियन 25 फरवरी 1910 को जगदलपुर पहुंच गई। आते ही फौज ने घेरा तोड़ा और अपना लक्ष्य बनाया। 511 आदिवासी गिरफ्तार कर लिए गए इन्हें कोड़े से पीटा गया। 25 फरवरी 1910 को अलवार के जंगल में 600 विद्रोही आदिवासी सोए हुए थे, अंग्रेजी फौज ने उन पर गोलियां बरसाई। आदिवासियों ने फौज का सामना तीर से किया। यहां के संघर्ष में 21 आदिवासी मारे गए।
विद्रोही नेता गुण्डाधुर और डेनरी भाग गए। लाल कालेन्द्रसिंह को अंग्रेजी फौज ने गिरफ्तार कर लिया। 26 जनवरी 1910 को बस्तर का यह विद्रोह एक तरह से समाप्त हो गया था। बहुत से विद्रोही पकड़े गए जिनमें से अधिकांश को फांसी दी गई तथा कुछ को जेल में चन्द कर दिया गया।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 31 आदिवासी मारे गए, सैकड़ों घायल, हुए, सैकड़ों ने कोड़े की मार सही तथा 44 हजार रूपये उपद्रवियों से वसूल किए गए।
यद्यपि अंग्रेजी फौज ने आन्दोलन को कठोरता पूर्वक दबा दिया, परन्तु जिस उद्देश्य से आदिवासियों ने यह विद्रोह किया था उसमें कुछ हद तक सफलता अवश्य मिली। विद्रोह शान्त होने के बाद दीवान बैजनाथसिंह पण्डा को हटा दिया गया उसके स्थान पर जेम्स को दीवान बनाया गया। आदिवासियों के निस्तार के लिए निस्तारी जंगल का प्रावधान किया गया, ब्रिटिश सरकार ने 1910 के विद्रोह का दोष लाल कालेन्द्र सिंह पर आरोपित किया था उसे उत्तराधिकारी पद से वंचित कर बस्तर रियासत से निष्कासित कर दिया गया। इसी प्रकार रानी सुवर्णकुंवर को रायपुर जेल भेज दिया गया जहां अक्टूबर 1910 में उसकी मृत्यु हो गई। लालकालेन्द्र सिंह को एलिचपुरी में निर्वासित जीवन बिताना पड़ा। 1916 में वह परलोक सिधार गये।
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किसान उराव बगावत (1918 )
घरगुजा छत्तीसगढ़ प्रभाग की एक प्रमुख रियासत थी। सन् 1918 में रामानुजशरन सिंह देव इस रियासत के गद्दी पर आसीन हुए। इसी वर्ष एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई, जिसे किसान उरांव विद्रोह (बगावत) कहा जाता है। अप्रैल 1918 में किसान उरांव विद्रोहियों ने एकाएक सारही और पाट पुलिस स्टेशन के 14 गांव लूट लिए और 51 व्यक्तियों की निर्मम हत्या कर दी, ये सभी मृत व्यक्ति शासकीय कर्मचारी थे।
किसान उरांव विद्रोह दमन के लिए कई पुलिस कर्मचारी व सैन्य अधिकारी गोरखा सेना के साथ वहां भेजे गये। स्वयं महाराजा रामानुजशरण सिंहदेव ने अपने राज्य के इलाकेदार भैया यहादुर इन्द्रप्रताप सिंह तथा लाल जगदीश बहादुर सिंहदेव सशस्त्र सैनिकों के साथ विद्रोह दमन के लिए भेजे।
किसान उरांव विद्रोह का गढ़ पलामू जिला की सीमा पर स्थित गोपाल ग्राम पर आक्रमण किया गया। विद्रोहियों ने मार्ग में इलाकेदार व उसकी सेना को घेर लिया, घनुष व बाण, भाले आदि से आक्रमण किया गया। इस आक्रमण में अनेक व्यक्ति हताहत हुए। शाही और ब्रिटिश सेना ने विद्रोहियों पर गोलियां चलाई जिससे विद्रोहियों की क्षति हुई।
विद्रोहियों के केन्द्र गोपाल ग्राम पर आक्रमण किया गया, अनेक घरों में आग लगा दी गई, जो भी विद्रोही सामने आया उसे जान से मार डाला गया।
महाराजा राजानुजशरण सिंह देव की सहायता के लिए नेल्सन की नेतृत्व से सशस्त्र पुलिस भी समय पर आ पहुंची। विद्रोहियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
अनेक विद्रोहियों को मृत्यु दण्ड दिया गया। विद्रोह के दमन के पश्चात यह ज्ञात हुआ कि इस विद्रोह की पृष्ठभूमि में जमने मिशनरियों का हाथ था। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय वन जातियों को उकसाकर विद्रोह की चिंगारी फैलाई थी।
कोरिया रियासत में गोंड़ विद्रोह (1932 )
वन प्रान्तों व पहाड़ियों से घिरी रियासत की अधिकांश जनता गोंड जनजाति की थी, जो अत्यंत असभ्य व अशिक्षित थी। इस रियासत में बेगार प्रथा विद्यमान थी। गोंड़ों को रियासत के लिए सड़क बनाना पालकी ढोला तथा राजा-रानी के अतिथियों के लिए जंगली जानवरों का शिकार करना पड़ता था। इन सब कार्यों के लिए भोले-भाले आदिवासियों को कुछ भी रकम मेहताना के रूप में प्राप्त नहीं होता था।
सन् 1932 में गोंड़ों ने वेगार के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द की। इस समय तक इस रियासत के गोंड़ आदिवासियों में जागृति आ चुकी थी। वे महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, पं. रविशंकर शुक्ल आदि कांग्रेस के उच्च नेताओं के नाम सुन रखे थे और यह भी अच्छी तरह जान चुके थे कि इन नेताओं का उद्देश्य आजादी है। इस रियासत के घुटरा गांव के निर्धन, असभ्य, अशिक्षित गोंड़ आदिवासियों ने तारीख 15.2.1932 को एक आमसभा आयोजित की इसमें उपस्थित जनसमूह ने तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किए :
1. मांस-मदिरा का सेवन नहीं किया जावेगा।
2. आपस में लड़ाई-झगड़े अधिक न कर शान्ति से रहेंगे तथा अपने बच्चों को पढ़ाएंगे।
3.बेगार नहीं किया जायेगा।
घुटरागांव के गोंड़ आदिवासियों ने आमसभा में पारित प्रस्ताव को आवेदन पत्र द्वारा राजा रामानुजप्रताप सिंह देव की सेवा में भेजना तय किया। इस खबर को सुनते ही सब इन्सपेक्टर बलभद्रप्रसाद तिवारी आग-बबूला हो गया। उसने गोड़ों की खूब डांट डफ्ट की, उत्तेजित गरीब गोड़ों ने उसे मुंहतोड़ जवाब दिया।
रियासत के दीवान साहब एंडले ने कुछ लोगों को संदेश देकर बुलवाया और एकत्रित होने का कारण जानना चाहा। उपस्थित गोंड़ों ने कहा कि ‘हम गांधी जी का स्वराज्य मना रहे हैं।’ दीवान साहब को यह बगावत जैसा नजर आया। उसने पुलिस फायर करने के आदेश दिए। पुलिस ने भोले-भाले गोंड़ आदिवासियों पर गोलियां चलाई।
इस घटना में छः आदमी जान से मारे गए और कई घायल हुए। बाद में सैकड़ों आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया। उन पर मनमाना अत्याचार किया गया। बाहर के किसी भी आदमी को इस गांव में आने जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
रियासत के राजा रामानुजप्रताप सिंह देव ने भविष्य में आन्दोलन न हो, इसके लिए सुधारवादी नीति अपनाई। उसने वैकुण्ठपुर और मनेन्द्रगढ़ में नगर पालिका निर्माण करने, प्रजापरिषद व प्रजा सभा कायम करने को महत्वपूर्ण घोषणा की।