अनेक यूरोपवासियों के मन में भारत के नाम से महाराजाओं, सँपेरों ओर नटों की तसवीर उभरती रही है। इस प्रवृत्ति ने उन चीजों में आकर्षण तथा रोमानियत की संचार किया, जो भारतीय थीं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में भारत की चर्चा आर्थिक दृष्टि से अल्पविकसित देश के रूप में इतनी अधिक हुई है कि महाराजाओं, सँपेरों ओर नटों के कुहासे में से उसका चित्र एक शक्तिशाली स्पंदनशील देश के रूप में उभरने लगा है। महाराजा अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं और नटों के करतब दृष्टिभ्रम से ज्यादा कभी कुछ नहीं रहे । बाकी है तो एक सँपेरा सामान्यतया एक अर्ध-पोषण का शिकार प्राणी, जो अपनी जान जोखिम में डालकर सौंप को पकड़ता है. उसके जहरीले दाँतों को उखाड़ता है और अपनी बीन के इशारों पर उसे नचाता है। और यह सब वह अपना अपने परिवार का और साँप का पेट भरने के लिए कभी-कभी कुछ सिक्के मिल जाने की आशा में करता है।
यूरोप की कल्पना में भारत सदा से बेहिसाब संपत्ति और अलोकिक घटनाओं का एक अविश्वसनीय देश रहा है. जहाँ बुद्धिमान व्यक्तियों की संख्या सामान्य से कुछ अधिक थी। जमीन खोदकरं सोना निकालनेवाली चीटियों से लेकर वनों में नग्न रहनेवाले दार्शनिकों तक सब उस चित्र के अंग थे जो भारतीयों को लेकर प्राचीन यूनानियों के मन में बसा हुआ था और यह चित्र कई शताब्दियों तक ऐसा ही बना रहा। इसे नष्ट न करना सदाशयतापूर्ण प्रतीत हो सकता था, किंतु इसे बनाए रखने का मतलब एक मिथ्या धारणा को बनाए रखना होता ।
दूसरी सभी प्राचीन संस्कृतियों की तरह भारत में संपत्ति कुछ लोगों तक सीमित रही। आध्यात्मिक क्रियाकलापों में भी थोड़े-से लोग ही संलग्न थे। पर यह सत्य है कि इन क्रियाकलापों में आस्था रखना अधिकांश लोगों का स्वभाव बन गया था। दूसरी कुछ संस्कृतियों में जहाँ रस्सी के करतब को शेतान की प्रेरणाओं का परिणाम कहा जाता और इसलिए इसकी हर चर्चा को दबाया जाता, भारत में इसे मनोरंजन के साधन के रूप में उदार दृष्टि से देखा जाता था । भारतीय सभ्यता की बुनियादी विवेकशीलता का कारण यही रहा है कि इसमें कोई शेतान नहीं रहा।
संपति जादू और ज्ञान के साथ भारत का नाम अनेक शताब्दियों तक जुड़ा रहा। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में, जब यूरोप ने आधुनिक युग में प्रवेश किया तो यह रवैया बदलना शुरू हो गया और कई क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति के प्रति उत्साह प्राय उसी अनुपात में कम हो गया जितना पहले उत्साह का अतिरेक था। अब यह पाया गया कि भारत में कोई ऐसी विशेषता नहीं थी जिसकी नवीन यूरोप सराहना करता। विवेकयुक्त विचार और व्यक्तिवाद के मूल्यों पर स्पष्टतः यहाँ कोई बल नहीं था। भारत की संस्कृति गत्यवरुद्ध संस्कृति थी और इसे अतीव तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाने लगा। यह प्रवृत्ति भारतीय वस्तुओं के प्रति मैकाले के तिरस्कार में शायद सर्वोत्तम ढंग से मूर्तिमान हुई है। भारत की राजनीतिक संस्थाओं को, जिनकी कल्पना अधिकांशतया महाराजाओं और सुलतानों के शासन के रूप में की गई थी, निरंकुश और जनमत के प्रतिनिधित्व से सर्वथा विच्छिन्न कहकर तिरस्कृत किया गया । और एक लोकतांत्रिक क्रांतियों के युग में, यह शायद सबसे बड़ा पाप था।
किंतु यूरोपीय विद्वानों के एक छोटे वर्ग के बीच से, एक विरोधी प्रवृत्ति का जन्म हुआ। इन विद्वानों ने भारत की खोज अधिकांशतया उसके प्राचीन दर्शन ओर संस्कृत भाषा में सुरक्षित साहित्य के माध्यम से की थी। इस प्रवृत्ति ने जान बूझकर भारतीय संस्कृति के अनाधुनिक ओर अनुपयोगितावादी पक्षों पर बल दिया, जिनमें तीन हजार से भी अधिक वर्षों से अक्षुण्ण रहनेवाले धर्म के अस्तित्व का जयगान था और यह समझा गया था कि भारतीय जीवन पद्धति आध्यात्मिकता और धार्मिक विश्वास की सूक्ष्मताओं से इतनी अधिक संपृक्त है कि जीवन की पार्थिव चीजों के लिए वहाँ कोई अवकाशा ही नहीं है। जर्मन रोमेटिकवाद भारत के इस स्वरूप के समर्थन में अत्यधिक आग्रहशील था ओर यह आग्रहशीलता भारत के लिए उतनी ही क्षतिकारक थी जितनी मेकाले द्वारा भारतीय संस्कृति की अवहेलना भारत अब अनेक यूरोपवासियों के लिये एक रहस्यत्मक प्रदेश हो गया, जहाँ अत्यंत साधारण क्रियाकलापों में भी प्रतीकात्मकता का समावेश किया जाता था। वह पूर्व की आध्यात्मिकता का जनक था, और संयोगवश, उन यूरोपीय बुद्धिजीवियों का शरण-स्थल भी जी अपनी स्वयं की जीवन पद्धति से पलायन करना चाह रहे थे। मूल्यों का एक द्वैध स्थापित किया गया, जिसमें भारतीय मूल्यों को आध्यात्मिक ओर यूरोपीय मूल्यों को भौतिकवादी कहा गया, किंतु इन कथित आध्यात्मिक मूल्यों को भारतीय समाज के संदर्भ में देखने का प्रयास बहुत कम हुआ (जिसके कुछ विक्षुब्ध करनेवाले परिणाम हो सकते थे)। पिछले सो वर्षों में कुछ भारतीय विचारकों ने इस विचारधारा को स्वीकार कर लिया और भारतीय बुद्धिजीवियों के लिए यह ब्रिटेन की तकनीकी श्रेष्ठता के साथ प्रतियोगिता कर पाने में अपनी असमर्थता को छुपाने का एक बहाना बन गया ।
अठारहवीं शताब्दी में भारत के अतीत की खोज और यूरोप के सामने उसे प्रस्तुत करने का काम अधिकांशतया भारत में जेसुइट संप्रदाय के लोगों और सर विलियम जोन्स तथा चार्ल्स विल्किन्स जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के यूरोपीय कर्मचारियों ने किया। जल्दी ही भारत की प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य के अध्ययन में दिलचस्पी लेनेवालों की संख्या बढ़ गई और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भाषा-विज्ञान, नृशास्त्र तथा भारत विद्या के अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति दिखाई दी। यूरोप में विद्वानों ने अध्ययन के इस नए क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई, जिसका प्रमाण उन लोगों की संख्या है जिन्होंने भारत विद्या को अपने अध्ययन का क्षेत्र बनाया और जिनमें से कम से कम एक व्यक्ति का उल्लेख यहाँ आवश्यक है वह है एफ मैक्समूलर ।
उन्नीसवीं सदी में भारत के साथ सबसे ज्यादा सीधा सरोकार जिन लोगों का था वे ब्रिटिश प्रशासक थे ओर शुरू में भारत के गैर-भारतीय इतिहासकार अधिकांशतया इसी वर्ग के लोग थे। फलस्वरूप, शुरू के इतिहास प्रशासकों के इतिहास थे, जिनमें मुख्यतया राजवंशों और साम्राज्यों के उत्थान और पतन का विवरण होता था। भारतीय इतिहास के नायक राजा थे और घटनाओं का विवरण उन्हीं से जुड़ा हुआ होता था। अशोक, चंद्रगुप्त द्वितीय, या अकबर जैसे अपवादों को छोड़कर, भारतीय शासक का आदर्श रूप निरंकुश राजा था जो अत्याचारी था ओर अपनी प्रजा की भलाई में जिसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। जहाँ तक वास्तविक शासन का सवाल है, अंतर्निहित विचार यह था कि इस उपमहाद्वीप के इतिहास में जितने शासक आज तक हुए हैं, ब्रिटिश प्रशासन उन सबकी तुलना में श्रेष्ठ था।
भारतीय इतिहास की इस व्याख्या ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों और बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखनेवाले भारतीय इतिहासकारों पर अपना प्रभाव डाला। आदर्श इतिहास ग्रंथों का मुख्य विषय राजवंशों का इतिवृत्त था जिसमें शासकों की जीवनी को अधिक महत्त्व दिया जाता था। लेकिन व्याख्या के दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया भिन्न प्रकार की हुई । अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने या तो स्वाधीनता के राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं भाग लिया था, या वे उससे प्रभावित थे। उनकी मान्यता थी कि भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग इस देश में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व अस्तित्व में था और भारत का सुदूर अतीत विशेष रूप से उसके इतिहास का वैभवशाली युग था। यह दृष्टिकोण बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारतीय जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का स्वाभाविक ओर अनिवार्य अंग था।
इस संदर्भ में एक ओर तिरस्कारपूर्ण धारणा थी जिसने प्राचीन भारत संबंधी अधिकांश प्रारंभिक लेखन को प्रभावित किया। इस काल का अध्ययन करनेवाले यूरोपीय इतिहासकारों की शिक्षा दीक्षा यूरोप की क्लासिकी परंपरा में हुई थी, जहाँ लोगों का यह दृढ़ विश्वास था कि यूनान की प्राचीन सभ्यता यूनान का चमत्कार मानव जाति की महानतम उपलब्धि थी। फलस्वरूप, जब भी किसी नई संस्कृति का पता चलता, तो उसकी तुलना प्राचीन यूनान से की जाती, ओर इस तुलना में उसे निरपवाद रूप से हीन पाया जाता । या अगर उसमे कोई प्रशंसनीय बात होती भी तो सहज भाव से उसे यूनानी संस्कृति के साथ जोड़ने की चेष्टा की जाती। विंसेंट स्मिथ, जो कई दशाब्दियों तक प्राचीन भारत का अग्रगण्य इतिहासकार समझा जाता रहा, इस प्रवृत्ति का शिकार था । अजंता स्थित सुप्रसिद्ध बौद्ध स्थल के भित्ति-चित्रों पर, और विशेष रूप से एक ऐसे चित्र पर लिखते समय, जिसके विषय में माना जाता है कि यह ईसा की सातवीं शताब्दी में फारस के एक सासानी राजा के किसी दूत के आगमन का चित्र हे ओर जिसका कला और इतिहास, किसी भी दृष्टि से यूनान के साथ कतई कोई संबंध नहीं है, वह कहता है:
भारत और फारस के असामान्य राजनीतिक संबंधों के एक समकालीन अभिलेख के रूप में दिलचस्प होने के अतिरिक्त यह चित्रकला के इतिहास में अपने विशिष्ट स्थान के कारण बहुत अधिक मूल्यवान है। इससे न केवल अजंता के कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्रों का काल निर्धारण होता है बल्कि एक ऐसा प्रतिमान भी स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल निर्धारण किया जा सके, बल्कि इस संभावना की ओर भी संकेत मिलता है कि अजंता शेती की चित्रकता फारस से, और अंतोगत्वा यूनान से ग्रहण की गई होगी।
भारतीय इतिहासकारों पर ऐसे वक्तव्यों की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यह सिद्ध करने के प्रयत्न किए गए कि भारत ने अपनी संस्कृति का कोई भी अंश यूनान से ग्रहण नहीं किया था, अथवा यह कि भारत की संस्कृति यूनानी संस्कृति के बिलकुल समानांतर थी, जिसमें उन सब गुणों के दर्शन होते थे जो यूनानी संस्कृति में वर्तमान थे। हर सभ्यता अपने. आपमें एक अलग चमत्कार होती है, इसे तब तक न यूरोपीय इतिहासकारों ने समझा था और न भारतीय इतिहासकारों ने किसी सभ्यता को स्वयं उसके गुणों के आधार पर परखने का विचार बाद में उत्पन्न हुआ।
अठारहवीं सदी में जब यूरोपीय विद्वानों का पहले पहल भारत से संबंध स्थापित हुआ और उसके अतीत के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तो उनकी सूचनाओं के स्रोत ब्राह्मण पुरोहित थे, जिन्हें प्राचीन परंपरा का संरक्षक मोना जाता था। उनका कहना था कि यह परंपरा संस्कृत ग्रंथों में सुरक्षित है और उन ग्रंथों से केवल वे ही भलीभांति परिचित हैं। इस प्रकार भारत के अधिकांश प्राचीन इतिहास की पुनर्रचना लगभग संपूर्णतया संस्कृत स्रोतों, अर्थात् प्राचीन शास्त्रीय भाषा में सुरक्षित सामग्री के आधार पर की गई। इनमें बहुतेरे ग्रंथ धार्मिक प्रकृति के थे और अतीत की व्याख्या स्वभावतः इनके रंग से बच नहीं सकी। धर्मशास्त्र (सामाजिक विधान की पुस्तकों) जैसे अपेक्षया इहलोकिक साहित्य के लेखक और टीकाकार भी ब्राहमण ही थे। फलस्वरूप उनका झुकाव सत्ता के समर्थन की ओर था तथा आमतौर पर वे अतीत की ब्राहमणों द्वारा की गई व्याख्या को मानते थे, भले ही उस व्याख्या में ऐतिहासिक प्रामाणिकता का अभाव हो। उदाहरण के लिए, वर्ण-व्यवस्था का जैसा वर्णन इन ग्रंथों में किया गया है उससे प्रतीत होता है कि अत्यंत प्राचीनकाल में ही समाज का विभिन्न स्तरों में कठोरता से बँटवारा कर दिया गया था और उसके बाद शताब्दियों तक यह व्यवस्था प्राय ज्यों की त्यों बनी रही। तो भी भारतीय समाज में वस्तुतः वर्ण व्यवस्था का रूप कुछ ऐसा था कि उसमें परिवर्तन की काफी गुंजाइश थी, जिसे धर्मशास्त्रों के प्रणेता स्वभावतः स्वीकार नहीं करना चाहते थे। बाद में दूसरे कई प्रकार के स्रोतों से उपलब्ध साक्ष्यों के प्रयोग ने ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत कुछ साक्ष्यों को चुनोती दी और कुछ का समर्थन किया, और इस प्रकार अतीत का ज्यादा सही चित्र सामने आया। समकालीन अभिलेखों और सिक्कों से उपलब्ध साक्ष्यों का महत्त्व तेजी से बढ़ता गया। विदेशी यात्रियों द्वारा गैर भारतीय भाषाओं यूनानी, लातिन, चीनी ओर अरबी में लिखे गए विवरणों का उपयोग करने पर अतीत को नए दृष्टिकोण से देखना संभव हुआ। विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई से अतीत के जो अधिक निभ्रांत अवशेष प्राप्त हुए हैं उनसे भी ऐसा ही ताभ हुआ। उदाहरण के लिए, चीनी स्रोतों से और श्रीलंका में अभिलिखित पालि धर्मग्रंथों के उपलब्ध होने पर बौद्ध धर्म संबंधी साक्ष्यों का संग्रह काफी बड़ा हो गया। तेरहवीं सदी के बाद के भारतीय इतिहास से संबंधित अरबी ओर फारसी की सामग्री का अध्ययन अब स्वतंत्र रूप से किया जाने लगा और उसे पश्चिम एशिया में इस्लामी संस्कृति का पूरक मानने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई।
प्रारंभ के अध्ययनों में राजवंशों के इतिहास पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के पीछे यह धारणा भी थी कि प्राच्य समाजों में राजा की सत्ता शासन के दैनदिन कार्यों में भी सवॉपरि थी। लेकिन भारतीय राजनीतिक प्रणालियों में दैनदिन कार्यों का प्राधिकार शायद ही कभी केंद्र के हाथों में होता था । भारतीय समाज की अद्वितीय विशेषता वर्ण व्यवस्था क्योंकि राजनीति और व्यावसायिक कार्यकलाप दोनों से जुड़ी हुई थी, इसलिए उसके अंतर्गत बहुत से ऐसे कार्य भी होते थे, जिन्हें सामान्यतया, पूर्व की निरंकुश व्यवस्था जैसी कोई चीज यदि सचमुच होती, तो उसके साथ संबद्ध किया जाता। भारत में सत्ता किस प्रकार कार्य करती रही है, यह वर्णों तथा जातियों के संबंधों और व्यापारिक श्रेणियों तथा ग्राम परिषदों जैसी संस्थाओं का विश्लेषण करके समझा जा सकता है, राजवंशों का सर्वेक्षण करने मात्र से नहीं। दुर्भाग्यवश, ऐसे अध्ययनों का महत्त्व अभी हाल में ही समझा गया है, और संभवतः ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक स्थापनाएँ प्रस्तुत करने के लिए एक-दो दशाब्दियों तक अभी और गंभीर अध्ययन करना पड़ेगा। फिलहाल तो हम अधिक से अधिक उन स्रोतों की ओर ही संकेत कर सकते हैं जिनसे शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ होगा।
संस्थाओं के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया, अंशतः जिसका कारण यह विश्वास था कि उनमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। यह ऐसा विचार था जिसने इस सिद्धांत का भी पोषण किया कि भारतीय संस्कृति, मुख्य रूप से भारतवासियों के आलस्य और जीवन के प्रति उनके निराशापूर्ण तथा भाग्यवादी दृष्टिकोण के कारण, अनेक शताब्दियों तक अवरुद्ध एवं अपरिवर्तनशील रही है। निस्संदेह यह अतिशयोक्ति है। शताब्दियों तक वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत बदलते हुए सामाजिक संबंधों या कृषि व्यवस्थाओं या भारतीयों के उत्साहपूर्ण व्यापारिक कार्यकलापों का सतही विश्लेषण भी किया जाए तो उससे और चाहे किसी बात का भी संकेत मिलता हो, रुद्ध सामाजिक आर्थिक स्थिति का संकेत कदापि नहीं मिलता। यह राज है कि कुछ स्तरों पर भारत में तीन हजार वर्ष से एक अबाध सांस्कृतिक परंपरा चली आ रही है.
लेकिन इस निरंतरता को जड़ता समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। किसी हिंदू द्वारा गायत्री मंत्र के पाठ का इतिहास तीन हजार साल पुराना है. लेकिन जिस संदर्भ में आज यह पाठ किया जाता है वह अपरिवर्तित रहा है. ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह आचर्य की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोप संबंधी अध्ययन करते हुए यूरोपीय इतिहास में विकासवाद की प्रवृत्तियाँ खोजने पर बहुत अधिक जोर दिया जा रहा था, एशियाई इतिहास के अध्ययन में यह दृष्टिकोण कभी नहीं अपनाया गया। भारतीय इतिहास को काल के विस्तार में द्वीपों की एक श्रृंखला के रूप में देखा गया, जिसमें हर द्वीप का नाम एक राजवंश के नाम के साथ जुड़ा हुआ था और भारतीय इतिहासकारों की अधिकांश मानक रचनाओं में इसी ढांचे का उपयोग किया गया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे पक्षों के अध्ययन की उपेक्षा की गई पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज और धर्म के विविध पक्षों पर अत्यंत रोचक सूचनाओं का संकलन किया गया। पर न जाने क्यों मानक इतिहास ग्रंथों में यह जानकारी बहुत कम सम्मिलित हो पाई है।
राजवंशों पर आग्रह के फलस्वरूप भारत का इतिहास तीन प्रमुख कालों में विभाजित हो गया प्राचीन, मध्य और आधुनिक प्राचीन युग बहुधा आर्य संस्कृति के आगमन (बाद के प्रकाशनों में सिंधु घाटी की सभ्यता) से प्रारंभ होकर ईस्वी सन् 1000 के लगभग उत्तरी भारत में तुर्क आक्रमणों के समय समाप्त होता है। यहाँ से मध्य युग प्रारंभ होता है, जो अठारहवीं सदी के मध्य में अंग्रेजों के आगमन तक चलता है। इस विभाजन को हिंदू के साथ प्राचीन युग के ओर मुस्लिम के साथ मध्य युग के अनुचित समीकरण से पुष्ट किया गया, क्योंकि पहले काल के अधिकांश राजघराने मूलतः हिंदू थे और दूसरे काल के मुस्लिम मुस्तिम काल की पूर्व युग से भिन्नता दिखाने के लिए उसे एक विशिष्ट चरित्र प्रदान किया गया, जिसमें हर स्तर पर मुस्लिम संस्कृति के अलगाव पर जोर था। मुस्लिम शासकों के दरबारी इतिहास लेखकों और उलेमाओं की रचनाओं में इस स्थापना का ओचित्य खोजा गया। जो भी हो, बीसवीं शताब्दी के भारत में जो राजनीतिक प्रवृत्तियाँ थीं. उनके चलते हिंदू युग ओर मुस्लिम युग के विभाजन को भारत के भारतीय और अभारतीय, दोनों इतिहासकारों ने मान लिया लेकिन भारतीय इतिहास का यह काल विभाजन अपनी धारणाओं में तो संदिग्ध है ही. इसके द्वारा कुछ बातों पर जो बल दिया गया वह भी भ्रामक है। भारतीय इतिहास में धर्म किसी भी दृष्टि से परिवर्तन का शक्तिशाली प्रेरक तत्व नहीं रहा, जैसाकि इन नामों से ध्वनित होता है
अनेक शक्तियों में से एक यह भी था। पिछले दिनों भारतीय इतिहास के प्रमु कालों को, उपरोक्त विभाजन की अपेक्षा अधिक तार्किक परिवर्तनों के आध पर पुनर्परिभाषित करने की चेष्टाएँ की गई हैं। (भ्रम से बचने के लिए आगे अध्यायों में काल-विभाजन की शब्दावली प्रयोग में नहीं लाई गई है।)
एक ओर तत्त्व, जिसने किसी सीमा तक ऐतिहासिक व्याख्या के आग्रहों क प्रभावित किया, इस उपमहाद्वीप का भौगोलिक ढाँचा था । उत्तर में सिंधु औ गंगा के विस्तृत मैदान में बड़े एकात्मक राज्यों का विकास बहुत आसानी से हो सका। उपमहाद्वीप का दक्षिणी प्रायद्वीपवाला आधा भाग पर्वतों, पठारों और नदी-उपत्यकाओं के द्वारा छोटे छोटे हिस्सों में बँट गया था, और इस भौगोलिक भिन्नता के कारण यहाँ राजनीतिक एकरूपता के अवसर, उत्तरी मैदान के मुकाबले कम थे। साम्राज्यों के इस युग में उन्नीसवीं और प्रारंभिक बीसवीं शताब्दी ऐसे ही युग थे उत्तर के विशाल राज्यों ने इतिहासकारों का ध्यान ओर आकर्षित किया। जिन कालों में बड़े राज्य पनपे, वे स्वर्ण युग कहलाए, और जब अपेक्षया छोटे प्रादेशिक राज्यों का विकास हुआ तो उन कालों को अंधकार-युग कहा गया। दक्षिणी भारत के इतिहास पर, उन कालों को छोड़कर, जब वह भी अपने साम्राज्यों पर गर्व कर सकता था, बहुत कम ध्यान दिया गया। उसे इसलिए भी अलाभकर स्थिति में रहना पड़ा कि वहाँ की राजनीतिक गतिविधियों का स्वरूप और उसकी आर्थिक संभावनाएँ उत्तर के जैसी नहीं थीं। उत्तरी राज्यों की शक्ति का आधार मूलतः विशाल भू-क्षेत्रों को अधिकृत करने पर था और उनका अधिकांश राजस्व भूमि से प्राप्त होता था। किसी भी इतिहासकार के लिए यह सीधी ओर सरलता से समझ में आ सकनेवाली बात थी । दक्षिणी राज्यों के गठन में सामुद्रिक शक्ति और सामुद्रिक कार्य व्यापार के आर्थिक पक्ष का प्रभाव बहुत अधिक था, जिसके कारण इन राज्यों का ढाँचा उत्तर की तुलना में अधिक जटिल हो गया ।
भारतीय इतिहास लेखन के बदलते हुए दृष्टिकोणों की ओर संकेत करने का उद्देश्य प्रारंभिक इतिहासकारों के काम को मूल्यहीन कहकर उपेक्षित करना या उनकी विद्वता के महत्त्व को घटाना नहीं है। उनकी व्याख्या की कमियाँ बहुधा उनके युग की कमियाँ थीं.
क्योंकि इतिहासकार अकसर अपने युग का इतना अधिक प्रतिनिधित्व करता है कि यह बात खुद उसकी सोच से बाहर होती है। अपनी कमियों के बावजूद इन अध्ययनों ने भारत के इतिहास की नींव रखी ओर उसे एक सुदृढ़ कालक्रमानुसारी ढाँचा प्रदान किया, जिसको आधार
बनाकर नई व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा सकती हैं जो भारतीय सभ्यता के विचारों और उसकी संस्थाओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में रखेंगी।
पहले भारत के इतिहासकार को मूलतः प्राच्यविद् समझा जाता था। उन दिनों प्राच्यविद् वे कहलाते थे जो एशिया की भाषाओं और संस्कृतियों का अध्ययन करते थे, और जिनके अध्ययन विजातीयता से सुवासित होते थे, कम से कम जन साधारण के मन में यही धारणा थी। प्राच्यविद्या संबंधी उन्नीसवीं शताब्दी की संकल्पना वर्तमान शताब्दी में यूरोप और भारत, दोनों स्थानों पर बदल गई है। समकालीन विश्व में इतिहास को अलग से क्लासिकी संस्कृतियों के अध्ययन की अपेक्षा सामाजिक विज्ञानों का एक अंग मानने की वृति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। यह नई प्रवृत्ति भारत के अतीत से भिन्न प्रकार के सवाल करना चाहती है प्राच्यविद् जो सवाल करते थे उनसे भिन्न । यह अंतर अधिकांशतया इतिहास संबंधी बदलते हुए आग्रहों का है । राजनीतिक इतिहास और राजवंशों का अध्ययन अब भी ऐतिहासिक व्याख्या के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, किंतु इनको अब दूसरी ऐसी विशेषताओं के संदर्भ में देखा जाता है जिनसे किसी राष्ट्र अथवा संस्कृति का निर्माण होता है। राजनीतिक ढाँचे में होनेवाले परिवर्तन आर्थिक ढाँचे के परिवर्तनों से अविच्छिन्न रूप से गूंथे होते हैं I ओर इनका फिर सामाजिक संबंधों पर प्रभाव पड़ता है। अगर किसी धार्मिक आंदोलन के बड़ी संख्या में अनुयायी बनते हैं, तो उसके आकर्षण में कोई ऐसी बात अवश्य होगी जो उसका समर्थन करनेवाले लोगों के लिए सार्थक हो । किसी नई भाषा या नए साहित्य का उदय तभी हो सकता है जब उनसे उस समाज की कोई आवश्यकता पूरी होती हो जिसमें उनकी जड़े हैं। भारतीय इतिहासकार के लिए उन लोगों के विचारों को प्रस्तुत करना या उनका
विशलेषण करना ही पर्याप्त नहीं है जिन्होंने भारत के इतिहास को रूप देने
और उसका खाका तैयार करने का प्रयत्न किया। यह जानना आवश्यक है कि
शताब्दियों तक भारत के लोगों ने क्यों इन विचारों को स्वीकार, अस्वीकार या
संशोधित किया।
इनमें से कुछ सवालों को उठाने की कोशिश इस पुस्तक में की गई है। इसका उद्देश्य उन संस्थाओं और घटनाओं की तरफ संकेत करना है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति के विकास में योग दिया है। लेकिन भारतीय संस्कृति का मूल्यांकन करने और निरपेक्ष मूल्य-निर्णय देने की प्रवृत्ति से यहाँ बचा गया है, क्योंकि इस पुस्तक जैसे संक्षिप्त इतिहास की सीमा में वैसे किसी मूल्यांकन का परिणाम निरर्थक घिसी-पिटी उक्तियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। यह
मूलतः राजनीतिक इतिहास नहीं है । राजवंशीय घटनाक्रम को यहाँ काल संदर्भों के रूप में ही देखा गया है। भारतीय जीवन के कुछ पहलुओं उदाहरणार्थ, आर्थिक संरचना, बदलते हुए सामाजिक संबंधों, धार्मिक आंदोलनों के ऐतिहासिक संदर्भ, भाषाओं के उद्भव और विकास का अध्ययन करते समय कुछ खास बातें उभरकर सामने आई हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उद्देश्य उन बातों का वर्णन करना और तथ्यों की ऐसे ढंग से व्याख्या करना है जो सवर्गीधिक विश्वसनीय प्रतीत हो ।
पिछले कुछ सालों में भारत का प्रारंभिक इतिहास दो नई पद्धतियों से उपलब्ध साक्ष्यों के उपयोग से समृद्ध हुआ है। ये दो पद्धतियाँ हैं समाज का उसके विविध रूपों में व्यवस्थित अध्ययन और पुरातत्व से प्राप्त समसामयिक साक्ष्यों का व्यापक उपयोग। पहली पद्धति का महत्त्व इस बात में निहित है कि यह भारत के अतीत को नए दृष्टिकोण से देखने की संभावनाओं को इंगित करती है और ऐसे प्रशग उठाती है जिनके उत्तर मिलने पर भारत के इतिहास की ज्यादा सही ढंग से समझ सकना संभव है। कई प्रकार के शोध कार्यों में इस दृष्टि का सार्थक उपयोग किया जा चुका है। समाज के अध्ययन से
•तुलनात्मक अध्ययन में भी रुचि बढी है एक संस्कृति को आदर्श घोषित करने I ओर दूसरी सब संस्कृतियों को उसकी कसोटी पर कसने की पुरानी पद्धति के रूप में नहीं, बल्कि कई संस्कृतियों के तुलनात्मक विश्लेषण के रूप में। यही वह दृष्टिकोण है जिसने यूरोपीय सामंतशाही पर मार्क ब्लॉच की पुस्तक जैसे ऐतिहासिक अध्ययनों को भारत के इतिहासकार की बोद्धिक तैयारी के लिए प्रासंगिक बनाया है।
पुरातत्त्व ने सर्वेक्षण और खुदाई से प्राप्त भौतिक अवशेषों के रूप में ठोस, त्रि-आयामी तथ्य प्रस्तुत किए हैं। ये तथ्य केवल साहित्यिक साक्ष्यों की पुष्टि ओर सांख्यिकीय सामग्री ही प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि भारतीय इतिहास के खासकर प्राचीनतम काल के बारे में जहाँ जहाँ जानकारी का अभाव था, उसकी पूर्ति करने में भी इनसे सहायता मिली है। गत पंद्रह वर्षों में प्राप्त प्रागेतिहासिक भारत से संबंधित साक्ष्य, संस्कृति के बाद में
विकसित रूपों के मूल स्रोतों का पता लगाने की दृष्टि से काफी मूल्यवान सिद्ध हुए हैं। ऐतिहासिक युग से तत्काल पूर्व की शताब्दियों में, इस उपमहाद्वीप के पुरातात्त्विक चित्र की सतही जानकारी भी भारत के प्रारंभिक इतिहास को समझने में सहायक है।
भारत में मानवीय कार्यकलाप के जो प्राचीनतम चिहन अब तक मिले हैं वे 4,00,000 ई. पू और 2,00,000 ई. पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युगों के